Tuesday 13 March 2012

मृत्यु-भोज



1 बछिया,खटिया और साईकल
सूते के सब सामान|
कितना सेर खाए के अनाज,
इंतजाम करी हम जजमान|

सारा गाँव के भोज कराई
दी ११ ब्राम्हण के दान|
खाए के खुद औकात ना
नियति ई बड़ा बेईमान|

 
साया उठल बाप के हमसे,
दर्द केहू के दिखत नाहीं|
निबही कईसे ई रीत अब
मर्म केहू के सुझत नाहीं|

बेटी के कपड़ा उधरल बा,
बेटा भूख से बिलखत बा|
मेहरारू के ईलाज नाहीं,
दाल-रोटी के किल्लत बा|


मरला पे भोज कईसन
मातम में उत्सव काहें?
मरला के बाद भी
जिंदा रहे के श्राप काहें?


कर्जा काढी के रीत निभाई,
ना तो कुल-भ्रष्ट हमार|
दाना-पानी बंद तब,
मृत्यु-भोज प्रान ली हमार|

स्वाति वल्लभा राज

8 comments:

  1. सच में,सामजिक कुरीतियाँ लील जाती हैं गरीबों को.....मृत्यु भोज जितना खर्च इलाज में कराते तो शायद मौत ही ना आती...

    सार्थक रचना..

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  2. ये बात आपने बहुत ही सही कही है ,जीते जी तो जीने -खाने में भले ही मुश्किल कर दो,बेहाली में छोड़ दो...पर मरने के बाद महाभोज का आयोजन करना जरुरी है..आखिर शान -शौकत का जो मामला है ...और इनका सबसे बुरा असर गरीबो पर होता है..
    लाजवाब है आपकी यह प्रस्तुति.

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  3. ज़िंदा रहते जिसकी जितनी सेवा नहीं की मरने के बाद उसके नाम से ये सब ड्रामा करने की क्या ज़रूरत?
    आपने बिलकुल सटीक लिखा है।


    सादर

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  4. बात त बिलकुल सही बा , कुरीतियाँ अगर दूर कर दिहल जाय तभी जीवन सुखी हो सकेला

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  5. ये सामाजिक रीतियाँ नहीं कुरीतियाँ हैं जिन्हें समाज के लोगों ने ही मिल बैठ के दूर करता है ... सार्थक प्रयास है आपका ...

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  6. सटीक चित्रण...
    इक्कीसवी सदी में भी समाज आडम्बरों से ऐसन ग्रसित बा, इ चिंता के विषय ह.

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  7. vicharneey post

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  8. .बेहतरीन प्रस्‍तुति

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