हमें कोई हक नहीं है उंगली उठाने का,उन मजबूरियों को ढोते शरीर मात्र पर ;जो ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना के जीवन की रक्षा में हर पल एक आग में जल रहीं हैं|देह-व्यापार से घृणा करें,उन दलालों से घृणा करें,उन कारणों और परिस्थितियों से घृणा करें,ना की उसकी शिकार आत्माओं से....
कहाँ रहल ई समाज जब
भूख से बचपन बिलखत रहल|
पढ़े के उम्र मे दर-दर,
काम खातिर भटकत रहल|
जरुरत ता पूरे ना भईल,
सपना,ईक्षा भी हंसत रहल|
देह छुपाये के मौसम में
चिथड़ा तन के ढकत रहल|
तार-तार हो गईल आत्मा
लाश जो तन के ढोवत रहल|
आज जब लाश बेंच देहनी ता
समाज सवाल उठावत रहल|
कौनो हक नइखे केहू के
साथ ना जब कोई देहत रहल|
पेट की आग खातिर जब,
देह खुद के ही बेंचत रहल|
स्वाति वल्लभा राज...
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आपके अन्दर एक क्रांति है, इसे जलाये रखिये.... शत शत नमन इन विचारों को!
ReplyDeleteकौनो हक नइखे केहू के
ReplyDeleteसाथ ना जब कोई देहत रहल|
पेट की आग खातिर जब,
देह खुद के ही बेंचत रहल|
सही बात है;किसी को कुछ भी कहने उंगली उठाने का कोई हक नहीं है।
सादर
Bilkul sahi baat.............
ReplyDeleteकौनो हक नइखे केहू के
ReplyDeleteसाथ ना जब कोई देहत रहल|
पेट की आग खातिर जब,
देह खुद के ही बेंचत रहल|
मुफ्त के राय देवे वाला ,
बहुते लोग मिल जाई.... !
राउर लिखल पाती पढ़ला के बाद ,
एको जाने के आँखी खुल जाइत ,
तबे त निक होइत नु.... !!
कौनो हक नइखे केहू के...
ReplyDeleteसही है... कोई अधिकार नहीं है किसी को भी कुछ कहने का...
bahut niman lagal prastuti
ReplyDeleteकौनो हक नइखे केहू के
ReplyDeleteसाथ ना जब कोई देहत रहल|shi bat.
तार-तार हो गईल आत्मा
ReplyDeleteलाश जो तन के ढोवत रहल|
आज जब लाश बेंच देहनी ता
समाज सवाल उठावत रहल|
uf kya kavita hai ek ek shab dil ko chhu gaya
rachana