Sunday 18 November 2012

छठ गीत



घटवा पे डूबी उगल बढल जाला,
पनिया में जहर माहुर बितुरल जाला |
सुनी न लोगी
छठी के दिन आइल 
घटवा के दुबिया गढ़ी
पनिया के साफ़ करिल |

खरना के दिनवा निजका आवल जाला
अरगा के बेरा हाली निजकल जाला|
फल दौरा सुपलिया
ईंखवा के साजल जाइल
चंदनी से कोसी 
सुन्दर ढाकल जाईल |

मनवा में हरषी हरषी भूखल जाला
आदित के भोरे सांझी अरगी जाला|
सुनी ना, सूरज देव
जल्दी जल्दी उग गईल
छठी के परव पावन
खूब सुन्दर भईल|

स्वाति वल्लभा राज

Wednesday 10 October 2012

शाप




आजो तहार बाट जोह तानी
नींद में भी सौ बार जागत बानी|
सिसकत सिसकत बीत गईल दिन
पर आस के अबहो हिसाब देत बानी|

औरत भईला के शाप भोग तानी
अंचरा में दूध अछईत भूख से मरत बानी|
छोह जो तहरा धईलस जुआ शराब के
आपन  'द्रौपदी'  नाम से डरत बानी|

कैसन ई कुली नशा इतना रमेला
धतुरा नियर सब कुछ भुला देला|
सैकड़ो घर बर्बाद भईल जेसन,
वईसन अपनों घर के दुर्गति सोच तानी|

स्वाति वल्लभा राज

Thursday 14 June 2012

बेटा आ बेटी



अईला ना काहे तू
छोड़ल पीहर में|
नेहवा के बंधन तोड़ल
छोड़ल बीहर में|

 

भयीनी कुलच्छनी हम
बेटा जो न जननी|
ससुरा से खेदयिनी हम
रौउवो तो न मननी|

 

तीन गो बेटी जो भईल
हमार कौन दोष रहल?
सेंदुर के भी झूठा कईनी
ऐसन कौन छोंछ रहल?


बेटा खातिर मोह छोड़वनी
बिसरल कैसे प्रीत के रतिया?
बेटी संग मेहरारू भुलैनी
बेटा में कैसन,अईसन बतिया?

स्वाति वल्लभा राज

Tuesday 13 March 2012

मृत्यु-भोज



1 बछिया,खटिया और साईकल
सूते के सब सामान|
कितना सेर खाए के अनाज,
इंतजाम करी हम जजमान|

सारा गाँव के भोज कराई
दी ११ ब्राम्हण के दान|
खाए के खुद औकात ना
नियति ई बड़ा बेईमान|

 
साया उठल बाप के हमसे,
दर्द केहू के दिखत नाहीं|
निबही कईसे ई रीत अब
मर्म केहू के सुझत नाहीं|

बेटी के कपड़ा उधरल बा,
बेटा भूख से बिलखत बा|
मेहरारू के ईलाज नाहीं,
दाल-रोटी के किल्लत बा|


मरला पे भोज कईसन
मातम में उत्सव काहें?
मरला के बाद भी
जिंदा रहे के श्राप काहें?


कर्जा काढी के रीत निभाई,
ना तो कुल-भ्रष्ट हमार|
दाना-पानी बंद तब,
मृत्यु-भोज प्रान ली हमार|

स्वाति वल्लभा राज

Tuesday 7 February 2012

कौनो हक नइखे केहू के


हमें कोई हक नहीं है उंगली उठाने का,उन मजबूरियों को ढोते शरीर मात्र पर ;जो ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना के जीवन की रक्षा में हर पल एक आग में जल रहीं हैं|देह-व्यापार से घृणा करें,उन दलालों से घृणा करें,उन कारणों और परिस्थितियों से घृणा करें,ना की उसकी शिकार आत्माओं से....

कहाँ रहल ई समाज जब
भूख से बचपन बिलखत रहल|
पढ़े के उम्र मे दर-दर,
काम खातिर भटकत रहल|

जरुरत ता पूरे ना भईल,
सपना,ईक्षा भी हंसत रहल|
देह छुपाये के मौसम में
चिथड़ा तन के ढकत रहल|

तार-तार हो गईल आत्मा
लाश जो तन के ढोवत रहल|
आज जब लाश बेंच देहनी ता
समाज सवाल उठावत रहल|

कौनो हक नइखे केहू के
साथ ना जब कोई देहत रहल|
पेट की आग खातिर जब,
देह खुद के ही बेंचत रहल|

स्वाति वल्लभा राज...




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Wednesday 1 February 2012

का कही हम बेटिहा हई


का कही हम बेटिहा हई?

कड़क सर्दी में ठिठुरत बानी
एक-एक पइसा जोडत बानी।
जेठ महिना में भी  तपनी,
हर तराजू में खुद के तोलत बानी।

ना जाने का मांगी उ सब,
मांग के भी जिए दी का?
बेटी जाने रोई की जिही,
रोज एही में मरत बानी।

जी गइल जो भाग ओकर,
मर गइल त कुभाग हमार।
जिए से जादा मरला के 
हौसला खुद के देवत बानी।




स्वाति वल्लभा राज