Tuesday 7 February 2012

कौनो हक नइखे केहू के


हमें कोई हक नहीं है उंगली उठाने का,उन मजबूरियों को ढोते शरीर मात्र पर ;जो ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना के जीवन की रक्षा में हर पल एक आग में जल रहीं हैं|देह-व्यापार से घृणा करें,उन दलालों से घृणा करें,उन कारणों और परिस्थितियों से घृणा करें,ना की उसकी शिकार आत्माओं से....

कहाँ रहल ई समाज जब
भूख से बचपन बिलखत रहल|
पढ़े के उम्र मे दर-दर,
काम खातिर भटकत रहल|

जरुरत ता पूरे ना भईल,
सपना,ईक्षा भी हंसत रहल|
देह छुपाये के मौसम में
चिथड़ा तन के ढकत रहल|

तार-तार हो गईल आत्मा
लाश जो तन के ढोवत रहल|
आज जब लाश बेंच देहनी ता
समाज सवाल उठावत रहल|

कौनो हक नइखे केहू के
साथ ना जब कोई देहत रहल|
पेट की आग खातिर जब,
देह खुद के ही बेंचत रहल|

स्वाति वल्लभा राज...




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Wednesday 1 February 2012

का कही हम बेटिहा हई


का कही हम बेटिहा हई?

कड़क सर्दी में ठिठुरत बानी
एक-एक पइसा जोडत बानी।
जेठ महिना में भी  तपनी,
हर तराजू में खुद के तोलत बानी।

ना जाने का मांगी उ सब,
मांग के भी जिए दी का?
बेटी जाने रोई की जिही,
रोज एही में मरत बानी।

जी गइल जो भाग ओकर,
मर गइल त कुभाग हमार।
जिए से जादा मरला के 
हौसला खुद के देवत बानी।




स्वाति वल्लभा राज